अभिज्ञान शाकुंतलम: एक सारांश
अभिज्ञान शाकुंतलम: एक सारांश
अभिज्ञान शाकुंतलम सम्पूर्ण विश्व के सर्वश्रेष्ठ नाटकों में से एक है। यह कवि कालिदास का प्रसिद्ध संस्कृत नाटक है। यहां कालिदास ने महाकाव्य महाभारत में वर्णित शकुंतला की कहानी का नाट्य रूपांतरण किया है। इसे कालिदास का सर्वश्रेष्ठ नाटक माना जाता है।
कालिदास को उनके ऋतुसंहारम, मेघदूतम, कुमारसंभवम, मालविकाग्निमित्रम, विक्रमोर्वशीयम और अभिज्ञान शाकुंतलम के लिए काफी सराहा जाता है। स्मरण रहे कि अभिज्ञान शाकुंतलम कालिदास का अंतिम नाटक है। इस नाटक को सात अंकों में विभाजित किया गया है। इस नाटक के शीर्षक का अर्थ है- शकुन्तला की पहचान (recognition of Shakuntala)।
यह शानदार नाटक रोमांस, धैर्य, और बलिदान की एक खूबसूरत कहानी है। शकुंतला महर्षि विश्वामित्र और मेनका की पुत्री हैं। जन्म के बाद शकुंतला घने जंगल में अकेली छोड़ दी जाती हैं। जंगल के पक्षी नवजात शिशु की रक्षा और देखभाल करते हैं। संयोग से एक दिन वे ऋषि कण्व को प्राप्त हो जाती हैं और वे उनका नाम शकुंतला रख देते हैं। शकुंतला धीरे-धीरे बड़ी हो जाती है और प्रकृति की तरह खूबसूरत दिखने लगती हैं।
एक दिन राजा दुष्यन्त शिकार के लिये जंगल में पहुँचते हैं और ऋषि कण्व का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए वे उनकी कुटिया पर जाते हैं। वहीं उन्हें शकुंतला के दर्शन होते हैं। दुष्यन्त उनकी सुंदरता से अत्यंत प्रभावित हो जाते हैं। शकुंतला और उनकी सहेलियों की बातचीत से दुष्यंत को पता चलता कि ऋषि कण्व कुछ दिन के लिए बाहर गए हुए हैं। ऋषि कण्व की अनुपस्थिति में दुष्यंत शकुंतला और उसकी सहेलियों का आतिथ्य स्वीकार कर लेते हैं। उचित समय पाकर दुष्यंत शकुंतला के प्रति अपने प्रेम का इजहार करते हैं और उनसे वादा करते हैं कि उनसे उत्पन्न पुत्र ही उनके राज्य का उत्तराधिकारी होगा। वे गंधर्व विवाह का सहारा लेकर विवाह कर लेते हैं और कुछ समय तक अपने दाम्पत्य जीवन की मर्यादा का पालन करते रहते हैं। उसके बाद किसी आपात स्थिति के कारण राजा को अपनी राजधानी वापस लौटना आवश्यक हो जाता है। वे शकुंतला को अपने प्यार की निशानी के रूप में अपनी अंगूठी देते हैं तथा वादा करते हैं कि वे आवश्यक कार्य निपटाकर शीघ्र ही वापस आयेंगे और शकुंतला को अपने साथ राजमहल ले जायेंगे।
इसके पश्चात दुष्यंत के अभाव में शकुंतला को एक एक पल वर्ष के सामान प्रतीत होने लगते हैं। शकुंतला हमेशा दुष्यंत की याद में खोई-सी रहती हैं। इसी बीच एक दिन कण्व ऋषि की अनुपस्थिति में क्रोधी स्वभाव के दुर्वासा ऋषि उनकी कुटिया पर पधारते हैं। वे वहां अपनी सेवा के लिए किसी को न पाकर वह बहुत ही क्रोधित हो जाते हैं गुस्से में आकर दुष्यंत की याद में खोई शकुंतला को कठिन शाप दे देते हैं। वे कहते हैं कि ऐ ऋषि कन्या! मेरी उपेक्षा कर तुम जिसकी याद में खोई हुई हो वह हमेशा के लिए तुम्हें भूल जाएगा। इस शाप से शकुंतला के जीवन में भूचाल आ जाता है। इसके पश्चात शकुंतला और उनकी सखियाँ दुर्वासा ऋषि से बहुत मिन्नतें करती हैं और उनसे शाप वापस ले लेने का अनुरोध करती हैं। बहुत मुश्किल से दुर्वासा ऋषि अपने अभिशाप को हल्का बनाने के लिए सहमत हो जाते है क्योंकि शाप को वापस लेना उनके लिए संभव नहीं है। अपने अभिशाप को हल्का करते हुए वे कहते हैं कि अगर सम्बंधित व्यक्ति को उसके द्वारा दी गयी कोई वस्तु प्रदान की जाय तो उसे सब कुछ याद आ जाएगा।
नाटक में आगे हम पाते है कि गर्भवती शकुंतला ऋषि कण्व के साथ राजा के आगमन की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही है। लेकिन राजा वापस नहीं लौटते।
तदुपरांत ऋषि कण्व गर्भवती शकुंतला के लिए राजा दुष्यंत के शाही दरबार में जाने की व्यवस्था करते हैं।
रास्ते में प्यासी शकुंतला एक जलाशय के किनारे पानी पीने के लिए रूकती हैं। दुर्भाग्य से दुष्यंत द्वारा दी गयी अंगूठी उनकी उंगली से फिसल जाती है और अंगूठी एक मछली द्वारा निगल ली जाती है। तत्पश्चात शकुंतला कोर्ट पहुंचती हैं और दुष्यंत के समक्ष अपनी पहचान स्थापित करने की भरपूर कोशिश करती हैं। वहाँ दुष्यन्त उनकी सुन्दरता की प्रशंसा तो अवश्य करते हैं परन्तु उन्हें पहचानने में असफल रहते हैं। वह बहुत मिन्नत करती हैं लेकिन कोई फायदा नहीं होता। अंततः वे आश्रम में वापस लौट आती हैं।
आख़िरकार संयोगवश राजा को उनकी अंगूठी वापस मिल जाती है और वे अपराध बोध से पीड़ित हो जाते हैं। उन्हें बहुत दुःख होता है। वे शकुंतला की याद में परेशान हो जाते हैं। वे शकुंतला से मिलने की तैयारी में लग जाते हैं कि इसी बीच भगवान इंद्र के दूत मताली उनके पास एक संदेश लेकर आते हैं। भगवान इंद्र के निर्देशों का पालन करते हुए दुष्यंत राक्षसों के खिलाफ लड़ने के लिए प्रस्थान कर जाते हैं और राक्षसों पर विजय प्राप्त करते हैं।
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